अरबी फ़ारसी की क़िस्सागोई : भारतीयता की पहचान : दास्तान-ए तिलिस्म होशरूबा –
फ़ारसी में दास्तानों की पुरानी परम्परा रही है। फ़ारसी साहित्य और संस्कृति का प्रभाव हिन्दुस्तानी समाज और संस्कृति पर भी पड़ा है। आज उर्दू भाषा का राजनीतिकरण हो रहा है लेकिन भाषा संस्कृति के विद्यार्थी जानते हैं कि उर्दू यहीं, हिन्दुस्तान की सरज़मीं पर पैदा हुई और पली-बढ़ी है। उर्दू ने फ़ारसी लिपि ग्रहण की लेकिन हिन्दुस्तान की क्षेत्रीय भाषाओं ब्रज, अवधी, भोजपुरी आदि की समाहित किया और आम हिन्दुस्तानियों के बीच बेरोकटोक प्रवाहित होती रही राही हमेशा कहते थे कि भाषा केवल लिपि नहीं होती। हमारे भारतीय समाज में अनेक क्षेत्रीय भाषाएँ हैं, अलग बोली-बानी हैं जो देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं राही इस बात की भी हिमायत करते थे कि अगर उर्दू को बनाये रखना है तो देवनागरी में लिखा जा सकता है। राही का पूरा लेखन हिन्दुस्तानी आदमी की धड़कन है और सदियों पुरानी हिन्दुस्तानी सभ्यता और संस्कृति का जीवन्त इतिहास समेटे है। 'तिलिस्म होशरुबा' की शोधपूर्ण विवेचना में भी यही तस्वीर उभर कर आती है जिसे राही ने प्रस्तुत किया है।
उर्दू में भी दास्तानें लिखी गयीं जिनमें दास्तान-ए-अमीर हमज़ा एक प्रमुख दास्तान है क़िस्सागो शेती, कहानी के भीतर से कहानी का विस्तार, निरन्तर की और उत्सुकता इन दास्तानों की विशेषता है। इस दास्तान का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा 'तिलिस्म होशरुबा' है, यानी ऐसा तिलिस्म, ऐसी ऐय्यारी जो होश उड़ा दे राही ने दास्तान-ए-अमीर हमज़ा की तथ्यपरक ऐतिहासिकता की खोज की और उसके महत्त्वपूर्ण हिस्से 'तिलिस्म होशरुबा' को अपने विस्तृत अध्ययन का आधार बनाया। ये उर्दू दास्तान हिन्दुस्तानी वातावरण में लिखी गयी और अपने आसपास की भौगोलिक-सामाजिक परिस्थितियों और सांस्कृतिक परिवेश में रोचक क़िस्सागोई के रूप में प्रस्तुत हुई राही शायद यही कहना चाहते हैं कि हिन्दुस्तान की धरती पर जन्मी, पत्नी-बड़ी उर्दू का सांस्कृतिक परिवेश विशुद्ध रूप से हिन्दुस्तानी है।
दरअसल हिन्दुस्तान का इस्लामिक परिवेश, रूपरंग भी अरब के इस्लाम जैसा नहीं है। यहाँ मुस्लिम समुदाय के रीति-रिवाज, रहन-सहन और भाषा-बोली भारतीय समाज और संस्कृति साथ घुलमिले हैं। मुहर्रम के ताजिये और जुलूस हों या इमामबाड़ों की उपस्थिति हो, वे विशुद्ध भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम समुदाय की पहचान हैं। संस्कृतियों के बीच परस्पर आदान-प्रदान की प्रक्रिया सहज स्वाभाविक रूप से चलती रही है जो सांस्कृतिक रूप रंग को समृद्ध कर उसे निरन्तर विस्तार देती है।
दास्तानों जैसी क़िस्सागोई प्राचीन संस्कृत साहित्य में भी मिलती है। कथा सरित्सागर जैसे अनेक ग्रन्थ मौजूद हैं 'तिलिस्म होशरुबा' का प्रभाव हिन्दी में देवकीनन्दन खत्री की उपन्यास श्रृंखला चन्द्रकान्ता और चन्द्रकान्ता सन्तति में स्पष्ट दिखाई देता है जिसका कथानक पाठक को राज दरबारों से लेकर एय्यारों की जादूगरी तथा रहस्य की दुनिया में ले जाता है।
- नमिता सिंह
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