सौ साल फ़िदा - गौरव सोलंकी की कविताएँ बिना किसी भूमिका के हमारे जीवन में दाखिल होती हैं। वे एक अनूठे फॉर्म में हमारे सामने आती हैं, बिना किसी कवच के। वे इतनी निहत्थी हैं जहाँ कोई डर नहीं बचता। उनके रोने में भी लगातार एक चुनौती, एक दहाड़ और एक ग़ुस्सा है और हम उन कविताओं की नग्नता को उनकी निरीहता समझकर उन्हें तसल्ली देना चाहते हैं, तब वे हमारे हाथ झटक देती हैं और हमें हमारी औसत, अँधेरी ज़िन्दगियों में भीतर तक खींच ले जाती हैं; वहाँ जहाँ भूख, अँधेरा और फ़ोन की बची हुई बैटरी जितना आत्मसम्मान है। ये कविताएँ कहती हैं कि यहाँ यातना के बारे में कुछ नहीं कहा जायेगा और तब वे माँ के हाथ के बने उस चूरमे की बात करती हैं जो आत्मा को छीलता हुआ पेट में उतरता जाता है या उन आँखों की, जिनमें धूप है और जिन्हें जितना देखना है, उतनी अन्धी होती जाती हैं। गौरव की कविताएँ घर लौटने की और इस तरह अपने भीतर लौटने की कविताएँ हैं। वे करोड़ों साल बाद तक की मोहब्बत की बात करती हैं उस प्रेम की, जो ख़ुद को ईश्वर समझता है। वे बार-बार मृत्यु की आँखों में आँखें डालकर देखती हैं और उनमें जीवन के लिए इतनी चाह है कि वे बार-बार हमें चेताती भी हैं कि ये कुएँ में कूद जाने या कविता पढ़ने के दिन नहीं हैं।
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