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कभी जल कभी जाल - 'कभी जल कभी जाल' युवा कवि हेमन्त कुकरेती का चौथा कविता संग्रह है। हेमत कुकरेती की कविताएँ संवेदना, सोच और संरचना की दृष्टि से समकालीन हिन्दी कविता में एक महत्त्वपूर्ण स्थान निर्मित कर चुकी हैं। 'कभी जल कभी जाल' की कविताओं के केन्द्र में है 'प्रेम'। हेमन्त की ये प्रेम कविताएँ जीवनचर्या की चहल-पहल के बीच आसक्ति के एकान्त की खोज है। अन्तत: यह एकान्त मानवीय जिजीविषा के अपार विस्तार तक जा पहुँचता है। हेमन्त प्रेम को कुछ 'भयभीत भौतिक भाष्यों' से मुक्त करना चाहते हैं। वे ऐसा कर सके हैं। इन कविताओं में प्रेम जीवन-विमर्श है। देखा जा सकता है कि हिन्दी कविता के विभिन्न युगों में प्रेम भाँति-भाँति की अर्थ छवियों में जगमगाया है। हेमन्त की प्रेम कविताएँ, अनुभव का नया कोमल आलोक लेकर छवियों की इस दुनिया में शामिल होती हैं। पत्ते पर ओस की बूँद की तरह काँपता अनिश्चय कई बार संवेग को विनम्र करता है और संघर्षों की निस्तब्ध धूप संकल्प को सुदृढ़ करती है। ये दोनों विशेषताएँ इस संग्रह में उपस्थित हैं। अनवरत पथरीले होते समय-समाज पर सम्यक् टिप्पणियाँ करते हुए हेमन्त कुकरेती सहभागिता के लोकतन्त्र का प्रस्ताव रखते हैं। हेमन्त के प्रेम में 'देह' ख़ारिज नहीं है किन्तु उसकी संकीर्णताओं का बहिष्कार है। यही कारण है कि 'कभी जल कभी जाल' से स्त्री की दुनिया का एक विरल दृश्य भी दिखाई पड़ता है। इस दृश्य पर विसंगतियों और विडम्बनाओं की तिर्यक छायाएँ हैं, जिनकी पहचान कवि ने की है। आज जब प्रेम 'विश्वग्राम' में एक नयी परिभाषा के साथ विकसित हो रहा है तब हेमन्त की इन कविताओं का महत्त्व बढ़ जाता है। प्रेम और सौन्दर्य के अपूर्व कवि जयशंकर प्रसाद ने 'कामायनी' में लिखा—'तुमुल कोलाहल कलह में मैं हृदय की बात, रे मन!' हेमन्त की कविताएँ हृदय की बात कहते हुए बुद्धि के वितर्क को भी रेखांकित करती हैं।—सुशील सिद्धार्थ
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