“सारे दुख एक तरह की अवधारणाएँ हैं। हम सब अपनी अवधारणाओं की वजह से दुख भोगते हैं।"
यह एक वाक्य जयशंकर की कहानियों के बीच बिजली की कौंध की तरह चमक जाता है-एक तरह से उनकी लगभग सब कहानियों को चरितार्थ करता हुआ । धारणाएँ सच या झूठ नहीं होतीं वे आत्मवंचनाएँ होती हैं, मनुष्य को अपने अनूठे सत्य से भटकाकर एक 'औसत ' यथार्थ में अवमूल्यित करती हुई। जयशंकर के पात्र जब इस सत्य से अवगत होते हैं, तब तक अपने 'सत्य' को जीने का समय गुज़र चुका होता है। वह गुज़र जाता है, लेकिन अपने पीछे अतृप्त लालसा की कोई किरच छोड़ जाता है। जयशंकर के पात्र अकेले रहते हुए भी एक भरापूरा सम्पूर्ण जीवन की ललक लिए रहते हैं। छोटे जीवन की विराट अभिलाषाएँ, जो लहराने से पहले ही मुरझाने लगती हैं ।
शायद इसीलिए जयशंकर का विषण्ण रूपक 'मरुस्थल' है, जिसकी रेत इन कहानियों में हर जगह उड़ती दिखाई देती है - वे चाहे अस्पताल के गलियारे हों या सिमिट्री के मैदान या चर्च की वाटिकाएँ। लेखक ने अपनी अन्तरंग दृष्टि और निस्संग सहृदयता से हिन्दुस्तानी क़स्बाती जीवन की घुटन, ताप, झुलसन की परतों को उघाड़ा है, जिनके नीचे विकलांग आदर्शों के भग्न अवशेष दबे हैं। संग्रह की एक कहानी में एकमहिला ने अपने जीवन के सर्वश्रेष्ठ वर्ष विनोबा जी के साथ बिताये हैं, किन्तु अस्पताल में रहते हुए अपने अन्तिम दिनों में सहसा उसका सामना 'वासनाओं' से होता है, जिन्हें वह अपने भीतर दबाती आयी थी । प्रेम, सेक्स, परिवार - क्या इनके अभाव की क्षतिपूर्ति कोई भी आदर्श कर सकता है? आदर्श और आकांक्षाओं के बीच की अँधेरी खाई को क्या क्लासिकल संगीत, रूसी उपन्यास, उत्कृष्ट फ़िल्में-पाट सकती हैं? क्या दूसरों के स्वप्न हमारे अपने जीवन की रिक्तता को रत्ती भर भर सकते हैं ? जयशंकर की हर कहानी में ये प्रश्न तीर की तरह बिंधे हैं।
“जीवन ने मुझे सवाल ही सवाल दिये, उत्तर एक भी नहीं।” जयशंकर का एक पात्र अपने उत्पीड़ित क्षण में कहता है। हमारी दुनिया में उत्तरों की कमी नहीं हैं, लेकिन “सही जीवन क्या है?" यह प्रश्न हमेशा अनुत्तरित रह जाता है... जयशंकर की ये कहानियाँ जीवन के इस 'अनुत्तरित प्रदेश' के सूने विस्तार में प्रतिध्वनित होते इस प्रश्न को शब्द देने का प्रयास करती हैं ।
-निर्मल वर्मा
प्रथम संस्करण, 1998
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