प्रत्येक समाज में स्तर भेद होते हैं और वैचारिक अभिव्यक्ति के रूपों की बहुलता होती है। इस प्रकार की विविधता संस्कृति को समृद्ध करती है। जैवविविधता की ही तरह वैचारिक तथा ज्ञान परम्पराओं की विविधता भी हमें सम्पन्न बनाती है। इस दृष्टि से लोक और शास्त्र की हमारी विरासत अनोखी है। 'लोक' पूरे समाज और उसके व्यवहार की भाषा है और 'शास्त्र' एक प्रकार से उस भाषा लिए व्याकरण की भूमिका में होता है। दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे पर निर्भर होता है। आज विचार और चिन्तन के क्षेत्र में 'लोक' और 'शास्त्र' दोनों को एक-दूसरे पर प्रतिपक्ष के रूप में रखकर समझने की एक भ्रामक प्रथा-सी चल पड़ी है। ऐसे में, यदि साहित्य और समाज को, लोक और शास्त्र के साझे, अन्तगुंफित प्रदेशों की तरह इंगित किया जाता है तो कई तरह के भ्रम-विभ्रम टूटते हैं। तब लोक और शास्त्र दोनों को हम एक-दूसरे के पूरक, न कि प्रतियोगी के रूप में पाते हैं। इससे भारतीय समाज की अपनी विशिष्टता और संश्लिष्टता की एक सहज समझ बनती है। यह तभी सम्भव है, जब लोक और शास्त्र को अनुभव के स्तर पर जिया जाये। यह अनुभव लोक की उपलब्धियों जैसे लोकवार्ता, लोककाव्य, लोककला ही नहीं बल्कि शास्त्र के निहितार्थी तक पहुँच कर ही हो सकता है।
पुस्तक में शामिल आलेखों का प्रतिपाद्य वैसे केन्द्रीय विषय के भिन्न-भिन्न आयामों को स्पर्श करता है। इनमें चर्चित विषय है लोक और शास्त्र के स्वरूप और उनकी व्याप्ति, उनके सम्बन्ध - परस्पर, एक-दूसरे में उनकी स्थिति और गति; साहित्य और कला के अलग-अलग सन्दर्भों में, अलग-अलग रूपों में उनकी अभिव्यक्ति के साथ ही भोजपुरी, व्रज, मैथिली, मराठी आदि विभिन्न भाषाओं के सन्दर्भ में उनके वैशिष्ट्य के अलावा उनमें निहित स्त्री और पर्यावरण सम्बन्धी चिन्ता और चेतना । निश्चय ही यह सब किसी भी तरह पर्याप्त नहीं कहा जा सकता परन्तु इनमें हमारी सोच विचार की दिशा अवश्य प्रकट होती है।
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