कबीर का मत और मूल आधार ज्ञान और प्रेम है।
कबीर ने मानव के विकसित ज्ञान और भाव को इनके मूल स्वरूप और प्रकृति में पहचाना। इसी कारण वेद (ज्ञान) को संवेद बनाकर युग को समझने हेतु युग की पीड़ाओं, विसंगतियों, विभेदों को मिटाने की ओर बढ़े। समूचे ब्रह्माण्ड को भावना में लेकर, संवेदनात्मक जल से -भवजल से आपूरित माना और कहा- “जल विच मीन प्यासी, मुझे सुन-सुन आवै हाँसी।" ऐसी भरपूर संवेदना ! ऐसी विराट भावना !
कबीर का चिन्तन, दर्शन के स्तर को यदि उपलब्ध करता है, तो वह भारतीय दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में ही और वह भी पूर्ण ज्ञान के धरातल पर, जिसमें मनुष्य के जन्म से मरण तक, धरती से आकाश तक और जीवन के सर्वांग तक फैली स्थितियों के प्रति चेतनता, समानता और संवेदनीयता सन्निहित है।
चैतन्य प्रकाश धरती पर मनुष्य के अतीत इतिहास को ही नहीं भावी अस्तित्व की राह को भी आलोकित करता है। मानवीय चैतन्य प्रकाश को विकिरणित करने वाली सन्तों की वाणी ही भावी विश्व की संरक्षिका भी होगी और पथ-प्रदर्शिका भी। इस वाणी में लोक और लोकायत की संवेदनशीलता सत्य पर आधारित होने से जीव-मात्र को ही नहीं, समूचे परिवेश को, ब्रह्माण्ड को आत्मीय सन्दर्भों में विराट अस्तित्व का अंग मानती है। सन्तों की दृष्टि में जड़-चेतन में जीव-अजीव का अन्तर तो है तथाकथित जड़-चेतन का अन्तर नहीं। आधुनिक विज्ञान ने जो स्थापनाएँ पिछले दो-ढाई सौ वर्षों में की हैं, वो स्थापनाएँ कबीर आदि सन्तों ने पाँच-छह सौ वर्ष पूर्व ही अपनी वाणी में दे रखी हैं ।
कबीर भाव और भावना में तर्कशील अध्यात्म के संस्थापकों में, वैदिक ज्ञान और वेदान्तिक प्रेम के पथिक हुए हैं। अतः किसी भी वायवीय, अतर्क्स, पाखण्ड या ढोंग को अस्वीकार करते हैं। उनकी चिन्ता उत्तर-आधुनिक समय में काल, महाकाल, मन्वन्तरों तक को लाँघती हुई मानवीय चिन्ता है।
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