सम्पूर्ण भक्तिकाव्य को मार्क्सवादी दृष्टि से इतनी समग्रता में विश्लेषित-विवेचित करने वाली हिन्दी की सम्भवतः यह पहली पुस्तक है। इसमें भक्तिकाव्य के जीवन्त और मृत तत्त्वों को अलगाया गया है और कहा गया है कि उसके जीवन्त तत्त्व हमारे आज के जीवन के लिए भी सार्थक और प्रेरक हैं। इसके विपरीत उसके रूढ़ तत्त्वों का इस्तेमाल और प्रचार अध्यापकों का वह तबका करता है जो प्रतिगामी और पुनरुत्थानवादी है। इसके विपरीत भक्तिकाव्य का एक पक्ष लोकवादी और प्रगतिशील है। इसकी चर्चा कम होती है या नहीं होती है। लेखक के ही शब्दों में, 'भक्तिकाव्य को मैंने ग्रहण किया है उस स्तर पर जिसकी या तो घोर भौतिकता में डूबे उसके भजनपूजनवादी प्रशंसक चर्चा नहीं करते या औपचारिकतावश चर्चा करते भी हैं तो वह उन्हें अपने ऊपर ही व्यंग्य मालूम देती है ।'
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