कसम खाकर कहती हूँ कि वह एक कयामत की रात थी। आज भी याद करती हूँ तो सिहर-सिहर उठती हूँ, जैसे किसी साँप की जीभ सहला-सहला जाये ! जान में जान तब आयी जब बोगी के कंडक्टर ने आकर हमें बताया, " रब का शुकर मनाओ जी कि ख़तरा टल गया।” “पर क्या वाक़ई कोई टेरारिस्ट एटेम्प्ट था या सिर्फ...?” बहुत कुछ पूछना चाहते थे हम, मगर कंडक्टर ने हमें बोलने का मौका ही न दिया, “ये टाइम बहोत ख़राब है जी, कब हक़ीक़त अफवाह बन जाये, कब अफवाह हकीकत, ख़तरा तो टल गया लगता है, पर ख़तरा तो कभी भी आ सकता है जी । एहतियातन एलर्ट ही रहें तो अच्छा।” कंपार्टमेंट की बुझी बत्तियाँ जल उठीं। लगा, हम एक लम्बी काली सुरंग से बाहर निकले हैं।'
'वह कौन थी?' कहानी का अंश
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